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चित्तमेव हि संसारो रागक्लेशादिवासितम् । तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥८३॥
भावार्थ : रागादि क्लेशों से वासित चित्त ही संसार है और उन रागादि क्लेशों से मुक्त हुआ चित्त ही भवान्त कहलाता है ॥८३॥ यश्च चित्तक्षणः क्लिष्टो नासावात्मा विरोधतः । अनन्यविकृतं रूपमित्यन्वर्थं ह्यदः पदम् ॥८४॥
भावार्थ : जो चित्त का क्षण (समय) क्लिष्ट है, वह विरोध के कारण आत्मा नहीं है, क्योंकि उस आत्मा का रूप निर्विकार है, इसलिए यह पद सार्थक है ॥८४॥ श्रुतवानुपयोगश्चेत्येतन्मिथ्या यथा वचः । तथाऽऽत्मा शुद्धरूपश्चेत्येवं शब्दनया जगुः ॥८५॥
भावार्थ : जैसे "उपयोग श्रुतवान् ही होता है" यह वचन मिथ्या है, वैसे ही 'आत्मा शुद्धरूप ही होती है', यह वचन भी मिथ्या है, यों शब्दनय कहते हैं ॥८५।। शुद्धपर्यायरूपस्तदात्मा शुद्धः स्वभावकृत् । प्रथमाप्रथमत्वादिभेदोऽप्येवं हि तात्त्विकः ॥८६॥
भावार्थ : जब आत्मा शुद्ध पर्यायरूप होकर अपने (आत्मा के) स्वभाव को प्रगट करने वाला होता है, तभी आत्मा शुद्ध है। इस प्रकार प्रधानता और अप्रधानता आदि भेद भी पारमार्थिक (वास्तविक) होते हैं ॥८६॥ २४६
अध्यात्मसार