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ये तु दिग्पटदेशीयाः शुद्धद्रव्यतयाऽऽत्मनः । शुद्धस्वभावकर्तृत्वं जगुस्तेऽपूर्वबुद्धयः ॥८७॥
भावार्थ : जो दिगम्बरकल्प शुद्धद्रव्यत्व को लेकर आत्मा को शुद्ध स्वभाव का कर्ता कहते हैं, उन्हें अपूर्वबुद्धि वाले समझने चाहिए ॥८७॥ द्रव्यास्तिकस्य प्रकृतिः शुद्धा संग्रहगोचरा । येनौक्ता सम्मतौ श्रीमत्सिद्धसेन-दिवाकरैः ॥४८॥
भावार्थ : यही कारण है कि श्रीमान् सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मतितर्क में द्रव्यास्तिक की शुद्ध प्रकृति संग्रह नय के विषय वाली कही है ॥८॥ तन्मते च न कर्तृत्वं भावानां सर्वदाऽन्वयात् । कूटस्थः केवलं तिष्ठत्यात्मा साक्षित्वमाश्रितः ॥८९॥
भावार्थ : उक्त नय के मत से पदार्थों का सदा अन्वय (सम्बन्ध) होने से आत्मा का कर्तृत्व नहीं है, अपितु साक्षित्व का आश्रय करने वाली केवल कूटस्थ आत्मा स्थित है ॥८९॥ कर्तुं व्याप्रियते नायमुदासीन इव स्थितः। आकाशमिव पंकेन लिप्यते, न च कर्मणा ॥१०॥
भावार्थ : उदासीन की तरह स्थित यह आत्मा कुछ भी करने के लिए व्यापार (प्रवृत्ति) नहीं करती । जैसे कीचड़ से आकाश लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा कर्म से लिप्त नहीं होती ॥९०॥ अधिकार अठारहवाँ
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