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कर्मणोऽपि च भोगस्य स्त्रगादेर्व्यवहारतः । नैगमादिव्यवस्थाऽपि भावनीयाऽनया दिशा ॥८०॥
भावार्थ : जीव सातावेदनीय, असातावेदनीय आदि कर्म का भी अशुद्ध निश्चयनय से भोक्ता है तथा व्यवहारनय के मत का अबलम्बन लेने से पुष्पमाला, वस्त्र, आभूषण, स्त्री वगैरह भोगों का भी भोक्ता है। नैगम यानी अनेक-विकल्पावलम्बी नय तथा आदि शब्द से संग्रह, व्यवहार वगैरह नयों की व्यवस्था-मर्यादा भी इसी दिशा से ही-अर्थात् विशेषग्राहीनय के मतादि की रनचा के द्वारा जान लेना । यानी पण्डितों को विचारपर्वक उसकी योजना कर लेनी चाहिए ॥८०।। कर्ताऽपि शुद्धभावानामात्मा शुद्धनयाद्विभुः । प्रतीत्य वृत्तिं यच्छुद्धक्षणानामेष मन्यते ॥८१॥
भावार्थ : शुद्ध नय से विभु (व्यापक) आत्मा शुद्ध भावों का कर्ता भी होता क्योंकि यह शुद्ध नय शुद्ध क्षणों की वृत्ति की अपेक्षा से (आश्रय लेकर) जीव को कर्त्ता के रूप में मानता है ॥८१॥ अनुपप्लवासाम्राज्ये विसभागपरिक्षये । आत्मा शुद्धस्वभावानां जननाय प्रवर्तते ॥८२॥ ___ भावार्थ : अनुपद्रव का साम्राज्य होने पर और विसभाग दशा का नाश होने पर भी आत्मा शुद्ध स्वभाव को उत्पन्न करने की प्रवृत्ति करता है ॥८२॥ अधिकार अठारहवाँ
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