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ध्यान करना चाहिए | क्योंकि ये अनुप्रेक्षाएँ ही वास्तव में ध्यान की प्राणरूप है ॥ ७० ॥
तीव्रादिभेदभाजः स्युर्लेश्यास्तितिस्रः इहोत्तराः । लिंगान्यत्रागमश्रद्धा विनयः सद्गुणस्तुतिः ॥७१॥
भावार्थ : यहाँ तीव्र आदि भेद वाली अन्तिम तीन लेश्याएँ होती हैं, उनके चिह्न हैं- आगमों के प्रति श्रद्धा, विनय और सगुणस्तुति ॥ ७१ ॥ शीलसंयमयुक्तस्य ध्यायतो धर्म्यमुत्तमम् । स्वर्गप्राप्तिं फलं प्राहुः प्रौढ़पुण्यानुबन्धिनीम् ॥७२॥
भावार्थ : शील और संयम से युक्त उत्तम धर्मध्यान का आचरण करने वाले योगी के लिए प्रौढ़ पुण्य के अनुबन्ध वाले स्वर्ग की प्राप्तिरूप फल कहा गया है ॥७२॥
ध्यायेच्छुक्लमथ क्षान्तिमृदुत्वार्जवमुक्तिभिः । छद्मस्थोऽणौ मनो धृत्वा व्यपनीय मनो जिनः ॥७३॥
भावार्थ : उसके पश्चात् क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति ( नि:स्पृहता) से युक्त छद्मस्थमुनि को परमाणु में मन को लगाकर शुक्लध्यान करना चाहिए, किन्तु वीतराग केवली को मन का निरोध करके शुक्लध्यान करना चाहिए ||७३ || सवितर्कं सविचारं सपृथक्त्वं तदादिमम् । नानानयाश्रितं तत्र वितर्कः पूर्वगं श्रुतम् ॥७४॥
अधिकार सोलहवाँ
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