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पूर्ण = ध्रुव वस्तु को ग्रहण करने वाले संग्रहनय) का वाद= कथन आत्मा को प्रत्यक्ष = शुद्ध ज्योतिस्वरूप - बन्ध - मोक्ष की अपेक्षारहित शुद्ध ज्योतिर्मान बताता है ||३२|| प्रपञ्च- संचय - क्लिष्टान्मायारूपाद् बिभेमि ते । प्रसीद भगवन्नात्मन् ! शुद्धरूपं प्रकाशय ॥३३॥
॥३२॥
भावार्थ : हे भगवन् आत्मन् ! प्रपञ्चों के दल से क्लिष्ट तेरे मायामय रूप से मैं डरता हूँ । अत: तू मुझ पर प्रसन्न हो और शुद्ध रूप को प्रकाशित कर ॥३३॥ देहेन सममेकत्वं मन्यते व्यवहारवित् । कथञ्चिन्मूर्ततापपत्तेर्वेदनादिसमुद्भवात् ॥३४॥
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भावार्थ : व्यवहारवेत्ता मनुष्य देह के साथ आत्मा का एकत्व मानता है, क्योंकि आत्मा को कथंचित् मूर्तिमत्ता (रूपित्व) की प्राप्ति होने से वेदना आदि की उत्पत्ति होती है । व्यवहारवेत्ता अर्थात् विशेष को ग्रहण करने वाला व्यवहारनयवादी कहता है ' आत्मा शरीर से अभिन्न है, जबकि निश्चयनयवादी इस बात का खण्डन करते हुए कहता है - " आत्मा शरीर से भिन्न है"; परन्तु इस कथन से पूर्व व्यवहारनय अपनी उक्त बात का समर्थन करते हुए युक्ति प्रतिपादन करता है—'आत्मा शरीर से ( कथंचित् ) अभिन्न है, क्योंकि जब शरीर पर कोई डंडे आदि से प्रहार करता है, तब उसकी वेदना (दुःख की अनुभूति) आत्मा में पैदा होती है,
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अध्यात्मसार