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वेदनाऽपि न मूर्तत्वनिमित्ता स्फुटमात्मनः । पुद्गलानां तदापत्तेः किन्त्वशुद्धस्वशक्तिजा ॥४२॥
भावार्थ : वेदना भी आत्मा के मूर्त्तत्व (को प्रगट करने) में स्पष्टतः निमित्त कारण नहीं है, क्योंकि अगर ऐसा माना जाएगा तो पुद्गलों को भी वेदना की प्राप्ति होने लगेगी। वस्तुतः वह वेदना तो अपनी (जीव की) अशुद्ध स्वशक्ति से ही उत्पन्न हुई है ॥४२॥ अक्षद्वारा यथा ज्ञानं स्वयं परिणमत्ययम् । तथेष्टानिष्टविषयस्पर्शद्वारेण वेदनाम् ॥४३॥
भावार्थ : जैसे यह आत्मा इन्द्रियों द्वारा स्वयं ही ज्ञानरूप में परिणमन करती है, (परिणत होती है), वैसे ही इष्ट और अनिष्ट विषय के स्पर्श द्वारा वेदनारूप में परिणत होती है, वेदना का अनुभव वेदन करती है ॥४३॥ विपाककालं प्राप्याऽसौ वेदनापरिणामभाक् । मूर्त निमित्तमात्रं नो घटे दण्डवदन्वयि ॥४४॥
भावार्थ : यह आत्मा विपाककाल को पाकर वेदना के परिणाम का भागी होता है। इसलिए मूर्त्तत्व (साकारता) ही उसका कोई कारण नहीं है। परन्तु वह घड़े के लिए डंडे की तरह सहचारी अन्वयी है ॥४४॥ ज्ञानाख्या चेतना बोधः कर्माख्या द्विष्टरक्तता। जन्तोः कर्मफलाख्या सा, वेदना व्यपदिश्यते ॥४५॥ अधिकार अठारहवाँ
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