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भावार्थ : जिसका रूप दृष्टि से अग्राह्य ( दिखाई देने लायक नहीं) है, हृदय (मन) से भी अगोचर है, वाणी से भी अगोचर है, परन्तु जो स्वयं प्रकाशरूप है, वह आत्मा मूर्तरूप कैसे हो सकता है? कदापि नहीं ||३८||
आत्मा सत्यचिदानन्दः सूक्ष्मात्सूक्ष्मः परात्परः । स्पृशत्यपि न मूर्त्तत्त्वं तथा चोक्तं परैरपि ॥ ३९ ॥
भावार्थ : आत्मा सत्, चित् और आनन्दस्वरूप है, वह सूक्ष्म है, पर से भी पर है, ऐसी आत्मा मूर्त्तत्त्व का लेशमात्र भी स्पर्श नहीं करता है, इसी प्रकार की बात अन्य दार्शनिकों ने भी कही है ॥३९॥
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसोऽपि परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥४०॥
भावार्थ : शरीर में इन्द्रियों को पर (श्रेष्ठ) कहा गया है, इन्द्रियों से पर मन को बताया गया है, मन से भी पर (श्रेष्ठ) बुद्धि है और जो बुद्धि से भी पर है, वह आत्मा है ॥४०॥ विकले हन्त ! लोकेऽस्मिन्नमूर्त्ते मूर्त्तताभ्रमात् । पश्यत्याश्चर्यवज्ज्ञानी वदत्याश्चर्यवद् वचः ॥४१॥
भावार्थ : अफसोस है कि अमूर्त के विषय में मूर्त्तता के भ्रम के कारण विवेकविकल इस लोक में ज्ञानी पुरुष आश्चर्यचकित सा देखता है और आश्चर्यवत् वचन बोलता है ॥ ४१ ॥
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अध्यात्मसार