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देहपुष्टेनरामर्त्यनायकानामपि स्फुटम् । महाजपोषणस्येव परिणामोऽतिदारुणः ॥६५॥
भावार्थ : मनुष्यों और देवों के तथा नेताओं के भी शरीर के पुष्ट (हट्टेकट्टे) होने का परिणाम भी बड़े बकरे को पोषण करके मोटा ताजा बनाने के समान अत्यन्त भयंकर आता है ॥६५॥ जलूकाः सुखमानिन्यः पिबन्त्यो रुधिरं यथा। भुञ्जाना विषयचान् यान्ति दशामन्तेऽतिदारुणाम् ॥६६॥
भावार्थ : जैसे जोंक खून चूस कर अत्यन्त सुख मानता है, वैसे हो विषयभोगों को भोगने वाले उनमें सुख मानते हैं, लेकिन दोनों अंत में अत्यन्त भयंकर दशा को प्राप्त करते हैं ॥६६॥ तीव्राग्निसंगसंशुष्यत् पयसामयसामिव । यत्रौत्सुक्यात् सदाक्षाणां तप्तता तत्र किं सुखम् ? ॥६७॥
भावार्थ : तीव्र अग्नि के संग से लोहे का पानी सूख जाता है, और वह संतप्त हो जाता है, वैसे ही विषयसुखों में सदा उत्सुक होने के कारण इन्द्रियाँ भी संतप्त रहती हैं । जहाँ ताप है, वहाँ सुख कहाँ से हो सकता है? प्राक्पश्चाच्चारतिस्पर्शात् पुटपाकमुपेयुषि । इन्द्रियाणां गणे तापव्याप एव न निर्वृतिः ॥६८॥
भावार्थ : पहले और बाद में भी संताप (अरति) के स्पर्श होने से पुट-पाक को प्राप्त इन्द्रियों के गण में संताप ही फैलता है, सुख नहीं होता ॥६८॥ अधिकार अठारहवाँ
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