________________
गन्धर्वनगरादीनामम्बरे डम्बरो यथा । तथा संयोगजः सर्गो विलासो वितथाकृतिः ॥३०॥
भावार्थ : जैसे आकाश में गन्धर्वनगर आदि का आडम्बर दिखाई देता है, वह मिथ्या है, वैसे ही संयोग से होता है, पर वह सत्य नहीं है, इसी प्रकार जीव और कर्म के संयोग से उत्पन्न सर्वविलास व्यर्थ है, मिथ्या है ॥३०॥ इति शुद्धनयात्तमेकत्वं प्राप्तमात्मनि । अंसादिकल्पनाऽप्यस्य नेष्टा यत्पूर्णवादिनः ॥३१॥
भावार्थ : इस तरह आत्मा में शुद्धनय के अधीन ऐसा एकत्व प्राप्त हुआ है, क्योंकि पूर्णवादी शुद्ध द्रव्यार्थिक नय में अंशादि की कल्पना करना जरा भी अभीष्ट नहीं है ॥३१॥ एक आत्मेति सूत्रस्याऽप्ययमेवाशयो मतः। प्रत्यग्ज्योतिषमात्मानमा नहुः शुद्धनयाः खलु ॥३२॥
भावार्थ : 'आत्मा एक ही है,' इस सूत्र का आशय भी ऊपर कहे अनुसार ही माना गया है, क्योंकि शुद्धनयों ने आत्मा को शुद्धज्योति वाला कहा है। समग्र असंख्य प्रदेशों को लेकर तथा ज्ञानादि को लेकर 'आत्मा एक ही', है, ‘एगे आया' इस सत्र पर भी इससे पर्व कहा हआ अभिप्राय माना है। यानी पूर्वाचार्यों ने इसी अभिप्राय को प्रमाणित किया है। कारण यह है कि शुद्ध नय (अर्थात् उत्पाद और व्यय का त्याग करके अधिकार अठारहवाँ
२३१