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नृनारकादिपर्यायैरप्युत्पन्नविनश्वरैः ।
भिन्नैर्जहाति नैकत्वमात्मद्रव्यं सदान्वयि ॥२३॥
भावार्थ : आत्मा का मनुष्य, नारक आदि भिन्न-भिन्न पर्यायों में उत्पन्न और विनाश होने पर भी निरन्तर अन्वयवाला आत्मद्रव्य एकत्व को नहीं छोड़ता ||२३|| यथैकं हेमकेयूरकुण्डलादिषु वर्तते । नृनारकादिभावेषु तथाऽऽत्मैको निरंजनः ॥२४॥
भावार्थ : जैसे एक ही सोना केयूर ( बाजूबन्द) और कुण्डल वगैरह में मौजूद है; वैसे एक ही निरंजन आत्मा मनुष्य, नारक आदि भावों (पदार्थों) में विद्यमान रहता है ||२४|| कर्मणस्ते हि पर्याया नात्मनः शुद्धसाक्षिणः । कर्मक्रियास्वभावं यदात्ममा त्वजस्वभाववान् ॥२५॥
॥२४॥
भावार्थ : वे नर-नारकादि पर्याय कर्म के ( कर्मजनित) ही हैं, शुद्ध साक्षीरूप आत्मा के नहीं हैं । क्योंकि कर्म क्रियास्वभाव वाले हैं और आत्मा तो अज (जन्म न लेने वाले) स्वभाव वाला है ॥ २५ ॥
नाणूनां कर्मणो वाऽसौ भवसर्गः स्वभावजः । एकैकविरहेऽभावान्न च तत्त्वान्तरं स्थितम् ॥२६॥
भावार्थ : इस संसार की रचना (उत्पत्ति - सर्जन) केवल कर्मपरमाणुओं के स्वभाव से नहीं होती, और न ही अकेले अधिकार अठारहवाँ
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