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भावार्थ : समस्त प्राणिगण के लिए जो रात्रि है, वह ध्यानी के लिए दिवस - सम्बन्धी महोत्सव होता है । और जिसमें वे (प्राणिगण) अभिनिवेश ( आग्रह ) पूर्वक जागृत रहते हैं, उसमें ध्यानी पुरुष सोये रहते हैं ||३||
संप्लुतोदक इवान्धुजलानां सर्वः सकलकर्मफलानाम् । सिद्धिरस्ति खलु यत्र तदुच्चैः ध्यानमेव परमार्थनिदानम् ॥४॥
भावार्थ : जैसे कुएँ के जल की सिद्धि (प्राप्ति) जल के स्रोत (झरने) से होती है, वैसे ही समस्त क्रियाओं के फल की सिद्धि ध्यान-प्रवाह (उच्च व सतत् ध्यान) से होती है । इसलिए ध्यान ही परमार्थ का (निदान) मूल कारण है ||४|| बाध्यते नहि कषायसमुत्थैः मानसैर्न ततभूपनमद्भिः । अत्यनिष्टविषयैरपि दुःखैर्ध्यानवान्निभृतमात्मनि लीनः ॥५॥
भावार्थ : आत्मा में अत्यन्त लीन (मग्न) ध्यानी कषायजनित मानसिक विकारों से, नमन करते हुए राजा, इन्द्र आदि के नमस्कार से समुत्पन्न मन के विकारों से एवं अत्यन्त अनिष्ट विषयों से तथा दुःखों से बाध्य (विवश) नहीं होता ॥ ५ ॥ स्पष्टदृष्टसुखसंभृतमिष्टं ध्यानमस्तु शिवशर्मगरिष्ठम् । नास्तिकस्तु निहतो यदि न स्यादेवमादिनयवाड्मयदण्डात् ॥६॥ भावार्थ : स्पष्ट रूप से देखे हुए सुख से परिपूर्ण, एवं मोक्षसुख से गरिष्ठ ध्यान ही मेरे लिए इष्ट हो । यदि इस प्रकार
अधिकार सतरहवाँ
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