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भावार्थ : न द्राक्षा में वह रस है, न शक्कर में है, न अमृत में है अथवा न कामिनी के अधरबिम्ब में वह रस है, जिस अलौकिक रस को कोई मनस्वी पुरुष ही जानता है, क्योंकि वह रस ध्यान से उत्पन्न हुए धैर्य (संतोष) में प्रसिद्ध है अथवा प्रगट होता है ॥१३॥ इत्यवेत्य मनसा परिपक्वध्यानसम्भवफले गरिमाणम् । तत्र यस्य रतिरेनमुपैति प्रौढ़धामभृतमाशु यशःश्रीः ॥१४॥
भावार्थ : इस प्रकार परिपक्वध्यान से उत्पन्न फल की गरिमा (महत्ता) को मन से जानकर जो इसमें प्रीति करता है, उस प्रौढ़ तेज से परिपूर्ण मुनि को शीघ्र ही यशोलक्ष्मी प्राप्त होती है ॥१४॥
॥ इति ध्यानस्तुति-अधिकारः ॥
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अध्यात्मसार