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भावार्थ : निश्चयनय से समस्त आत्माओं की चैतन्यरूप महासामन्यत्व के कारण एकता है, परन्तु कर्मों को लेकर उत्पन्न हुआ भेद उपप्लवरूप है ॥१२॥ मन्यते व्यवहारस्तु भूतग्रामादिभेदतः । जन्मादेश्च व्यवस्थातो, मिथो नानात्वमात्मनाम् ॥१३॥
भावार्थ : व्यवहारनय प्राणिसमूह के भेद के कारण तथा जन्मादि की व्यवस्था के कारण आत्माओं की परस्पर विविधता मानता है ॥१३॥ न चैतन्निश्चये युक्तं भूतग्रामो यतोऽखिलः । नानाकर्मप्रकृतिजः स्वभावो नात्मनः पुनः ॥१४॥
भावार्थ : निश्चयनय की दृष्टि में जीवों की यह विविधता युक्तियुक्त नहीं है; क्योंकि सारे ही प्राणिसमूह १४ प्रकार के जीवसमूह की भिन्नता नामकर्म की प्रकृतियों से जनित है। वह आत्मा का स्वभाव नहीं है ॥१४॥ जन्मादि कोऽपि नियतः परिणामो हि कर्मणाम् । न च कर्मकृतो भेदः स्यादात्मन्यविकारिणि ॥१५॥
भावार्थ : जन्म आदि भेद निश्चय ही कर्मों के परिणाम (फल) स्वरूप हैं । और वह कर्मकृत भेद अविकारी आत्मा से सम्बन्धित नहीं होता ॥१५॥ २२६
अध्यात्मसार