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भावार्थ : व्यवहारनय षष्ठी आदि विभक्ति से व्यपदेश से आत्मा को उसके पुर्वोक्त लक्षणों से भिन्न मानता है, परन्तु निश्चयनय इस तरह भिन्न नहीं मानता ॥८॥ घटस्य रूपमित्यत्र यथा भेदो विकल्पजः । आत्मनश्च गुणानां च तथा भेदो न तात्त्विकः ॥९॥
भावार्थ : जैसे घट और घट के रूप का भेद केवल विकल्प से उत्पन्न होता है; वैसे ही आत्मा और उसके गुण का भेद भी विकल्पज है, तात्त्विक नहीं है ॥९॥ शुद्धं यदात्मनो रूपं निश्चयेनाऽनुभूयते । व्यवहारो भिदा द्वाराऽनुभावयति तत्परम् ॥१०॥
भावार्थ : आत्मा के जिस शुद्ध स्वरूप का निश्चयनय द्वारा अनुभव किया जाता है; व्यवहारनय उस उत्कृष्ट स्वरूप के भेद का अनुभव कराता है ॥१०॥ वस्तुतस्तु गुणानां तद्रूपं न स्वात्मनः पृथक् । आत्मा स्यादन्यथाऽनात्मा ज्ञानाद्यपि जडं भवेत् ॥११॥
भावार्थ : वास्तव में गुणों का वह स्वरूप आत्मा से भिन्न नहीं है, अन्यथा आत्मा अनात्मारूप हो जाएगी और ज्ञान आदि भी जड़ हो जाएंगे ॥११॥ चैतन्यपरसामान्यात् सर्वेषामेकतात्मनाम् । निश्चिता कर्मजनितो भेदः पुनरूपप्लवः ॥१२॥ अधिकार अठारहवाँ
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