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भावार्थ : आत्मा एवं अनात्मा का अभेद सुना है, अनुभव किया है और परिचय में भी आया है, परन्तु कोई विरला व्यक्ति ही इसके भेद को निसर्ग से अथवा उपदेश से जानता है ||४||
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तदेकत्व-पृथक्त्वाभ्यामात्मज्ञानं हितावहम् । वृथैवाभिनिविष्टानामन्यथा धीबिडम्बना ॥५॥
भावार्थ : इस कारण एकत्व और पृथकत्व को लेकर आत्मज्ञान हितकारक होता है । किन्तु कदाग्रहीपुरुषों की उल्टी बुद्धि मिथ्या, वृथा और विडम्बनारूप है ॥ ५ ॥ ॥५॥ एक एव हि तत्रात्मा स्वभावे समवस्थितः । ज्ञान- दर्शन - चारित्रलक्षण: प्रतिपादितः ॥६॥
भावार्थ : आत्मा एक ही है, वह स्वभाव में ही स्थिर रहता है, और उसे ज्ञान - दर्शन - चारित्र - लक्षण वाला कहा है ॥६॥ प्रभानैर्मल्यशक्तीनां यथारत्नान्न भिन्नता । ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणानां तथात्मनः ॥७॥
भावार्थ : जैसे रत्न की कान्ति, निर्मलता और शक्ति रत्न से अलग नहीं हैं. वैसे ही ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप लक्षण आत्मा से भिन्न नहीं है ||७||
आत्मनो लक्षणानां च व्यवहारो हि भिन्नता । षष्ट्यादिव्यपदेशेन मन्यते, न तु निश्चयः ॥ ८ ॥
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अध्यात्मसार