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शीलविष्टरदमोदकपाद्यप्रातिभार्ध्यसमता-मधुपर्केः
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ध्यानधाम्नि भवति स्फुटमात्माहूतपूतपरमातिथिपूजा ॥१०॥ भावार्थ : यहाँ ध्यानरूपी प्रासाद में प्रकटरूप में स्वतः बुलाए हुए पवित्र और उत्तम अतिथिरूप आत्मा की पूजा शीलरूपी आसन से, दमरूपी पादोदक (पैर धोने के जल) से, प्रातिभरूपी अर्ध्य से और समतारूपी मधुपर्क से होती है ॥१०॥ आत्मनो हि परमात्मनि योऽभूद् भेदबुद्धिकृत एव विवादः । ध्यानसन्धिकृदमुं व्यपनीय द्रागभेदमनयोर्वितनोति ॥ ११ ॥
भावार्थ : आत्मा और परमात्मा में जो भेदबुद्धि का विवाद था उसे ध्यानरूपी सन्धिकर्ता ने झटपट मिटाकर दोनों में अभेदभाव (एकत्व) फैला दिया ॥११॥
क्वाऽमृतं विषभृते फणिलोके क्व क्षयिण्यपि विधौ त्रिदिवे वा । क्वाप्सरोरतिमतां त्रिदशानां ध्यान एव तदिदं बुधपेयम् ॥१२॥
भावार्थ : विष से भरे हुए नागलोक में अमृत कहाँ से हो? प्रतिदिन क्षीण होने वाले चन्द्रमा में भी अमृत कहाँ है और (नाशवान) स्वर्ग में भी अप्सराओं के साथ प्रेम में डूबे हुए देवों के पास भी अमृत कहाँ सम्भव है? परन्तु पण्डितजनों द्वारा पीने योग्य वह अमृत तो ध्यान (ध्यान योग) में ही है ॥१२॥ गोस्तनीषु न सिताषु सुधायां नाऽपि, नाऽपि वनिताधरबिम्बे । तं रसं कमपि वेत्ति मनस्वी, ध्यानसम्भवधृतौ प्रथते यः ॥ १३ ॥ अधिकार सतरहवाँ
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