Book Title: Adhyatma Sara
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 220
________________ से नय के वाङ्मय (शास्त्र) रूपी दण्ड के प्रहार से नास्तिक का विघात नहीं हुआ तो उससे क्या हुआ ? ||६|| यत्र नार्कविधुतारकदीपज्योतिषां प्रसरतामवकाशः । ध्यान-भिन्नतमसामुदितात्मज्योतिषां तदपि भाति रहस्यम् ॥७॥ भावार्थ : जहाँ (जिस रहस्य को प्रगट करने के लिए) प्रकाश फैलाते हुए सूर्य, चन्द्रमा, तारे और दीपकों की ज्योतियों को बिल्कुल अवकाश नहीं है, यह गूढ़ रहस्य भी ध्यान से अज्ञानान्धकार का भेदन करके आत्मज्योति पाए हुए मुनियों को प्रतीत हो जाता है ||७|| योजयत्यमितकालवियुक्तां प्रेयसीं शमरतिं त्वरितं यत् । ध्यानमित्रमिदमेव मतं नः, किं परैर्जगति कृत्रिममित्रैः ॥८ ॥ ॥७॥ भावार्थ : जो मित्र चिरकाल से वियोग पाई हुई शमरति नाम की प्रिया को तत्काल मिला देता है, उस ध्यानरूपी मित्र को ही हमने मित्र माना है । अतः अब हमें जगत् में नकली मित्रों से क्या मतलब है? ॥८॥ वारितस्मरबलातपचारे शीलशीतलसुगन्धिनिवेशे । उच्छ्रिते प्रशमतल्पनिविष्टो ध्यानधाग्नि लभते सुखमात्मा ॥ ९ ॥ भावार्थ : अत्यन्त ऊँचे ध्यानरूपी रंगमहल में प्रशमरूपी पलंग पर बैठा हुआ महात्मा सुख पाता है । जिस प्रासाद में कामदेव के बलरूपी धूप का संचार रोक दिया गया है, और जहाँ शीलरूपी शीतल सुगन्ध फैल रही है ॥ ९ ॥ २२० अध्यात्मसार

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