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अधिकार सतरहवाँ
[ध्यान-स्तुति] यत्र गच्छति परं परिपाकं, पाकशासनपदं तृणकल्पम् । स्वप्रकाशसुखबोधमयं तत्, ध्यानमेव भवनाशि भजध्वम् ॥१॥
भावार्थ : जब साधक ध्यानयोग में उत्कृष्ट परिपक्वदशा प्राप्त करता है तब इन्द्र का पद भी उसे तिनके के समान लगता है । अतः आत्मप्रकाशकारी, सुखबोधमय एवं भवभ्रमणविनाशकर्ता उस ध्यान का सेवन करो ॥१॥ आतुरैरपि जडैरपि साक्षात् सुत्यजा हि विषया न तु रागः । ध्यानवांस्तु परमद्युतिदर्शी तृप्तिमाप्य न तमृच्छति भूयः ॥२॥
भावार्थ : आतुर तथा जड़पुरुषों के द्वारा विषय तो प्रत्यक्षरूप में आसानी से त्यागे जा सकते हैं, किन्तु उन विषयों का राग (रस) त्यागा नहीं जा सकता । लेकिन ध्यानयोगी तो परमात्मा के प्रकाश का दर्शन करने के बाद तृप्त हो जाते हैं, फिर वे उस राग का स्वीकार ही नहीं करते ॥२॥ या निशा सकलभूतगणानां ध्यानिनो दिनमहोत्सव एषः । यत्र जाग्रति च तेऽभिनिविष्टा ध्यानिनो भवति तत्र सुषुप्तिः ॥३॥ २१८
अध्यात्मसार