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देवमाया वगैरह में मोहमूढ नहीं होता । शुक्लध्यानी मुनि का तृतीय लिंग विवेक होने से वह अपनी आत्मा को सर्वसंयोगों से पृथक् देखता है । तथा व्युत्सर्गरूप लिंग होने से वह शरीर
और उपकरण (सामग्री) के प्रति निःसंग (अनासक्त=निःस्पृह) होते हैं ॥८४-८५॥ एवं ध्यानक्रमं शुद्धं मत्वा भगवदाज्ञया । यः कुर्यादेतदभ्यासं सम्पूर्णाध्यात्मविद् भवेत् ॥८६॥
भावार्थ : इस प्रकार जो भगवान् की आज्ञा के अनुसार शुद्ध ध्यान के क्रम को जानकर उस ध्यान का अभ्यास करता है, वह सम्पूर्ण अध्यात्म का जानकार हो जाता है ॥८६।।
॥ इति ध्यानाधिकारः॥
अधिकार सोलहवाँ
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