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भावार्थ : शुक्लध्यान के विराम में आश्रव से प्राप्त होने वाले दुःख को, संसार के स्वभाव को, जन्म-मरण की परम्परा को तथा पदार्थ में होने वाले परिणाम को बाद में देखता रहे, यानी उसी का अनुध्यान करता रहे ॥८१॥ द्वयोः शुक्ला तृतीये च लेश्या सा परमा मता। चतुर्थशुक्लभेदस्तु लेश्यातीतः प्रकीर्तितः ॥८२॥
भावार्थ : प्रथम दो ध्यानों में शुक्ललेश्या होती है, तीसरे सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति नामक ध्यान में परम (उज्ज्वल) शुक्ललेश्या मानी गई है; और शुक्लध्यान के चौथे भेद को जिनेश्वर भगवन्तों ने लेश्यारहित कहा है ॥८२॥ लिंगं निर्मलयोगस्य शुक्लध्यानवतोऽवधः । असम्मोहो विवेकश्च व्युत्सर्गश्चाभिधीयते ॥८३॥
भावार्थ : निर्मल योग वाले शुक्लध्यानी के चार लिंग कहे हैं-अवध, असम्मोह, विवेक और व्युत्सर्ग ॥८३।। अवधादुपसर्गेभ्यः कम्पते, न बिभेति च । असम्मोहान्न सूक्ष्मार्थे मायास्वपि च मुह्यति ॥८४॥ विवेकात्सर्वसंयोगाद् भिन्नमात्मानमीक्षते । देहोपकरणासंगो व्युत्सर्गाज्जायते मुनिः ॥८५॥
भावार्थ : मुनि अवध होने से उपसर्गों से कम्पित नहीं होता और न डरता है, असम्मोह होने से सुक्ष्म अर्थ में तथा २१६
अध्यात्मसार