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भावार्थ : वितर्कसहित, विचारसहित, पृथक्त्वसहित, यों शुक्लध्यान का प्रथम पाद तीन प्रकार से युक्त होता है। इन तीनों में से वितर्क वह है, जो विविध नयों का आश्रय लेकर रहा हो, तथा जिसमें पूर्वगतश्रुत (पूर्वश्रुत का बोध) है ॥७४॥ अर्थ-व्यञ्जन-योगानां विचारोऽन्योऽन्यसंक्रमः । पृथक्त्वं द्रव्य-पर्याय-गुणान्तरगतिः पुनः ॥७५॥
भावार्थ : अर्थ, व्यञ्जन और योगों का परस्पर एक दूसरे में संक्रमण विचार कहलाता है। द्रव्य, पर्याय और गुण का एक दूसरे में गमन (संक्रमण) पृथक्त्व कहलाता है ॥७५।। त्रियोगयोगिनः साधोवितर्काद्यन्वितं ह्यदः । ईषच्चलतरंगाब्धेः क्षोभाभावदशानिभम् ॥७६॥
भावार्थ : तीनों योगों से योगी साधु के लिए वितर्कादि से युक्त यह प्रथम शुक्लध्यान कुछ चपल तरंगों वाले समुद्र की क्षोभरहित दशा के समान होता है ॥७६।। एकत्वेन वितर्केण विचारेण च संयुतम् । निर्वातस्थप्रदीपाभं द्वितीयं त्वेकपर्ययम् ॥७७॥
भावार्थ : एकत्व से, वितर्क से और विचार से युक्त एक पर्याय वाला दूसरा शुक्लध्यान वायुरहित स्थान में रखे हुए दीपक के समान निश्चल होता है ॥७७॥
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अध्यात्मसार