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यदा संहरते चाऽयं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६७॥
भावार्थ : जैसे कछुआ अपने सभी अंगों को सर्वथा सिकोड़ लेता है, वैसे ही योगी जब इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को समेट लेता है, वापस खींच लेता है, तब उस मुनि की बुद्धि स्थिर है, यह समझ लो ॥६७॥ शान्तो दान्तो भवेदीदृगात्मारामतया स्थितः । सिद्धस्य हि स्वभावो यः सैव साधकयोग्यता ॥६८॥
भावार्थ : इस प्रकार आत्मा में रमणतापूर्वक स्थित योगी शान्त और दान्त हो जाता है, क्योंकि सिद्ध योगी का जो स्वभाव है, वही साधक की योग्यता है ॥६८॥ ध्याताऽयमेव शुक्लस्याऽप्रमत्तः पादयोः द्वयोः । पूर्वविद् योग्ययोगी च केवली परयोस्तयोः ॥६९॥
भावार्थ : यही अप्रमत्त साधक शुक्लध्यान के दोनों पादों का ध्याता होता है, बशर्ते कि वह पूर्वधारी हो, तथा दूसरे दो पाद के ध्याता क्रमशः सयोगी केवली और अयोगी केवली है ॥६९॥ अनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षा ध्यानस्योपरमेऽपि हि। भावयेन्नित्यमभ्रान्तः प्राणा ध्यानस्य ताः खलु ॥७०॥
भावार्थ : भ्रान्तिरहित मुनि को ध्यान के उपरम (विरामकाल) में सदा अनित्यत्व आदि अनुप्रेक्षा (भावना) का २१२
अध्यात्मसार