________________
भावार्थ : दूसरे दार्शनिकों को स्थितप्रज्ञ का जो लक्षण अभीष्ट है, वह सब यहाँ घटित होता है, उसी प्रकार इसकी भी व्यवस्था है ॥६३॥
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ ! मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ६४॥
भावार्थ : हे अर्जुन ! जब मन में रहे हुए सभी कामों (मनोरथों) को साधक छोड़ देता है और आत्मा से आत्मा में सन्तुष्ट हो जाता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है ॥६४॥ दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्चते ॥ ६५॥
भावार्थ : जिसका मन दुःखों के प्रसंगों में उद्विग्न नहीं होता और जो सुख के अवसरों पर स्पृहा से रहित है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है ॥ ६५ ॥ ॥६५॥
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६६॥
भावार्थ : जो सर्वत्र आसक्ति से रहित है तथा उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु या स्थिति प्राप्त होने पर न तो आनन्दित होता है और न ही द्वेष (घृणा) करता है, उसकी प्रज्ञा स्थिर है
॥६६॥
अधिकार सोलहवाँ
२११