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ननु मोक्षेऽपि जन्यत्वाद् विनाशिनी भवस्थितिः । नैवं प्रध्वंसवत्तस्यानिधनत्त्वव्यवस्थितेः ॥७३॥
भावार्थ : प्रश्न होता है-विनाशस्वभाव वाली आत्मा मोक्ष में जन्म लेती है, उत्पन्न होती है, इसलिए मोक्ष से फिर भव (संसार) में स्थिति (उत्पत्ति) होनी चाहिए ! इस पर सिद्धान्ती उत्तर देते हैं, ऐसा नहीं होता । प्रध्वंस की तरह मोक्ष की व्यवस्था अविनाशिनी है, उसका नाश नहीं होता ॥७३।। आकाशस्येव वैविक्त्या मुद्गरादेर्घटक्षये। ज्ञानादेः कर्मणो नाशे नात्मनो जायतेऽधिकम् ॥७४॥
भावार्थ : मुद्गर आदि से घड़े के फूट जाने पर पृथक्ता हो जाने से जैसे आकाश बढ़ता नहीं है, वैसे ही ज्ञानादि द्वारा कर्म का नाश होने से भी आत्मा की वृद्धि नहीं होती ॥७४॥ न च कर्माणुसम्बन्धान्मुक्तस्यापि न मुक्तता । योगानां बन्धहेतूनामपुनर्भवसम्भवात् ॥७५॥
भावार्थ : कर्म-परमाणुओं के साथ सम्बन्ध होने से सिद्धि प्राप्त हुई मुक्तात्मा को भी मुक्ति नहीं मिलती, ऐसी शंका करना उचित नहीं, क्योंकि बन्ध के हेतुरूप योगों की पुनः उत्पत्ति असंभव है ॥५॥ सुखस्य तारतम्येन प्रकर्षस्याऽपि सम्भवात् । अनन्तसुखसंवित्तिर्मोक्षः सिध्यति निर्भयः ॥७६॥ अधिकार तेरहवां
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