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नयभंगप्रमाणाढ्यां हेतूदाहरणान्विताम् । आज्ञां ध्यायेज्जिनेन्द्राणामप्रामाण्याकलंकिताम् ॥३६॥
भावार्थ : नयों, भंगों और प्रमाणों से समृद्ध ( व्याप्त); हेतुओं और उदाहरणों से युक्त और अप्रमाण के कलंक से रहित जिनेन्द्रों की आज्ञा का ध्यान करना चाहिए ||३६|| राग-द्वेष- कषायादि - पीड़ितानां जनुष्मताम् । ऐहिकामुष्मिकांस्तांस्तान्नानाऽऽपायान् विचिन्तयेत् ॥३७॥
भेद
भावार्थ : राग, द्वेष, कषाय आदि से पीड़ित प्राणियों के इहलोक-परलोक-सम्बन्धी उन-उन प्रकार के विविध कष्टों (अपायों) का चिन्तन करना अपायविचय नामक दूसरा है ||३७|| ध्यायेत् कर्मविपाकं च तं तं योगानुभावजम् । प्रकृत्यादि - चतुर्भेदं शुभाशुभविभागतः ॥ ३८ ॥
भावार्थ : उस-उस योग के प्रभाव से उत्पन्न हुए और प्रकृतिबन्ध आदि चार प्रकार के बन्ध वाले कर्मों के विपाक का शुभ और अशुभ के विभागपूर्वक ध्यान (चिन्तन) करना विपाकविचय नामक तीसरा धर्मध्यान है ||३८||
उत्पाद-स्थितिभंगादिपर्यायैर्लक्षणैः पृथक् । भेदैर्नामादिभिर्लोकसंस्थानं चिन्तयेद् भृतम् ॥३९॥
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अध्यात्मसार