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भावार्थ : उत्पाद, व्यय और ध्रुव आदि पयार्यों से परिपूर्ण (भरे हुए) लक्षणों से भिन्न-भिन्न सत्ता वाले भेद और नाम आदि से (भरे हुए) लोकसंस्थान (लोकाकृति) का चिन्तन करना, चौथा लोकसंस्थानविय है ॥ ३९॥ चिन्तयेत्तत्र कर्तारं भोक्तारं निजकर्मणाम् । अरूपमव्ययं जीवमुपयोगस्वलक्षणम् ॥४०॥
भावार्थ : उस लोकसंस्थान में स्वयं आत्मा अपने कर्मों का कर्त्ता है, भोक्ता है, अरूपी है, अविनाशी है, तथा उपयोगलक्षण से युक्त है, ऐसा चिन्तन करना भी संस्थानविचय नामक धर्मध्यान के अन्तर्गत है ॥४०॥
तत्कर्मजनितं जन्म- जरा - मरणवारिणा । पूर्ण - मोहमहावर्तं कामौर्वानलभीषणम् ॥४१॥ आशामहानिलापूर्णकषायकलशोच्छलत् । असद्विकल्पकल्लोलचक्रं दधतमुद्धतम् ॥४२॥ हृदि स्त्रोतसिकावेलासम्पातदुरितक्रमम् । प्रार्थनावल्लिसन्तानं दुष्पूरविषयोदरम् ॥४३॥ अज्ञानदुर्दिनं व्यापद्विद्युत्पातोद्भवद्भयम् । कदाग्रहकुवातेन हृदयोत्कम्पकारिणम् ॥४४॥
विविधव्याधि-संबंधमत्स्य - कच्छपसंकुलम् । चिन्तयेच्च भवाम्भोधिं चलद्दोषाद्रिदुर्गमम् ॥४५॥
अधिकार सोलहवाँ
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