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तपोऽनुकूलपवनोद्भूतसंवेगवेगतः । वैराग्यमार्गपतितं चारित्रवहनं श्रिताः ॥ ४९॥
सद्भावनाख्यमंजूषान्यस्तसच्चित्तरत्नतः ।
यथाऽविघ्नेन गच्छन्ति निर्वाणनगरं बुधाः ॥५०॥
भावार्थ : उस संसारसागर को पार करने में उपाय (साधन)रूप, सम्यक्त्वरूपी दृढबन्धन वाला, बहुत से (१८ हजार) शीलांगरूपी फलक (तख्ते) वाला, ज्ञानरूपी निर्यामक से युक्त, संवर से आश्रवरूपी छिद्रों को बन्द करने वाला, चारों ओर गुप्तियों से रक्षित, आचाररूपी मंडप से सुशोभित, अपवाद और उत्सर्ग नामक दो भूमिकाओं वाला, असंख्य अजेय सदाशयरूपी योद्धाओं के कारण पराजित करने में असमर्थ सद्योगरूपी कूपस्तम्भ के अग्रभाग में अध्यात्मरूपी श्वेतवस्त्र का मस्तूल चढ़ाया हुआ, तपरूपी अनुकूल वायु से उत्पन्न हुए संवेगरूपी वेग से वैराग्यरूपी पथ पर चारित्ररूपी जलयान चलता है । उस चारित्ररूपी जलयान में बैठकर पण्डितजन सद्भावना नाम की पेटी में सुभचित्तरूपी रत्न को रखकर निर्विघ्नता से मोक्षनगर पहुँच जाते हैं । इस प्रकार एकाग्रचित्त से चिन्तन (ध्यान) करना ॥४६-४७-४८-४९-५०॥
यथा च मोहपल्लीशे लब्धव्यतिकरे तथा । संसारनाटकोच्छेदाशंकापंकाविले मुहुः ॥५१॥
अधिकार सोलहवाँ
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