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सज्जीकृतस्वीयभटे नावं दुर्बुद्धिनामिकाम् । श्रिते दुर्नीतिनौवृन्दारूढ़शेषभटान्विते ॥५२॥
भावार्थ : जैसे ही मोहरूपी पल्लीपति ने यह वृत्तान्त सुना कि बार-बार वह संसाररूपी नाटक के उच्छेद की शंकारूपी पंक से मलिन हुआ, तभी उसने (मोहराजा ने) अपने सुभटों को सुसज्जित करके दुर्बुद्धि नाम की नौका का आश्रय लिया, और बाकी के योद्धा दुर्नीति नाम की नौका में आरुढ़ हुए ॥५१-५२॥ आगच्छत्यत्र धर्मेशभटौधे रणमण्डपम् । तत्त्वचिन्तादिनाराचसज्जीभूते समाश्रिते ॥५३॥
भावार्थ : उसके बाद तत्त्वचिन्ता आदि बाणों से सुसज्ज होकर धर्मराजा का आश्रय लेकर उनके सुभटों का दल समरांगणमण्डप में आ गया ॥५३॥ मिथो लग्ने रणावेशे सम्यग्दर्शनमंत्रिणा। मिथ्यात्वमंत्री विषमां प्राप्यते चरमां दशाम् ॥५४॥
भावार्थ : उसके बाद परस्पर युद्ध होने लगा, उसमें सम्यग्दर्शनरूपी मन्त्री ने मिथ्यादर्शनरूपी मन्त्री को अत्यन्त विषम अन्तिम अवस्था में पहुंचा दिया ॥५४॥ लीलयैव निरुध्यन्ते कषायचरटा अपि । प्रशमादि-महायौधैः शीलेन स्मरतस्करः ॥५५॥
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अध्यात्मसार