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भावार्थ : जैसे दृढ़ द्रव्य (पदार्थ) के आलम्बन वाला पुरुष विषमस्थान पर आरोहण कर लेता है, वैसे ही सूत्रादि आलम्बनों का आश्रय लिया हुआ योगी सद्ध्यान पर आरूढ़ हो जाता है ॥३२॥ आलम्बनादरोद्भूत-प्रत्यूहक्षययोगतः । ध्यानाधारोहणभ्रंशो योगिनां नोपजायते ॥३३॥
भावार्थ : आलम्बन का आदर करने से समुत्पन्न विघ्नों के नाश हो जाने के कारण योगियों का ध्यानरूपी पर्वत पर आरोहण करते हुए भ्रंश (पात) नहीं होता ॥३३॥ मनोनिरोधादिको ध्यानप्रतिपत्तिक्रमो जिने । शेषेषु तु यथायोगं समाधानं प्रकीर्तितम् ॥३४॥
भावार्थ : केवलज्ञानी में मन के निरोध आदि से लेकर ध्यान की प्रतिपत्ति (प्राप्ति) का क्रम बताया है । दूसरों के सम्बन्ध में यथायोग्य समाधान (मनोयोग आदि की समाधि) बताया है ॥३४॥ आज्ञापायविपाकानां संस्थानस्य च चिन्तनात् । धर्मध्यानोपयुक्तानां ध्यातव्यं स्याच्चतुर्विधम् ॥३५॥ ___ भावार्थ : आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान का चिन्तन करने से धर्मध्यान के लिए उपयुक्त (समर्थ) हुए योगियों के चार प्रकार ध्यातव्य होते हैं ॥३५॥ अधिकार सोलहवाँ
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