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अवस्था (शरीर के अवयवों की स्थिरता) जीती हुई (बहुत अधिक अभ्यास से परिचित ध्यान की अनुकूलता को लेकर अनुभूत) हो, तथा प्रारम्भ किये हुए धर्मध्यान का विनाश करने वाली कदापि न हो, उसी अवस्था में पद्मासनादि में बैठे हुए, कायोत्सर्गादि में खड़े हुए अथवा दर्भादिक की शय्या पर सोये हुए योगी को ध्यान करना चाहिए-ध्यान में तल्लीन हो जाना चाहिए ॥२९॥ सर्वासु मुनयो देशकालावस्थासु केवलम् । प्राप्तास्तन्नियमो नाऽऽसां नियता योगसुस्थता ॥३०॥
भावार्थ : समस्त देश, काल और अवस्थाओं में मुनियों ने केवलज्ञान प्राप्त किया है। इसलिए इनमें देशकालादि का कोई नियम नहीं है। योग की स्थिरता का तो नियम है ही ॥३०॥ वाचना चैव पृच्छा च परावृत्यनुचिन्तने । क्रिया चालम्बनानीह सद्धर्मावश्यकानि च ॥३१॥
भावार्थ : इस ध्यान में आरूढ़ होने के लिए वाचना, पृच्छा, आवृत्ति, अनुचिन्तन, क्रिया, सद्धर्म और आवश्यक ये आलम्बनरूप हैं ॥३१॥ आरोहति दृढ़द्रव्यालम्बनो विषमं पदम् । तथा रोहति सद्ध्यानं सूत्राद्यालम्बनाश्रितः ॥३२॥ २०२
अध्यात्मसार