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असंशयं महाबाहो !, मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय ! वैराग्येण च गृह्यते ॥२३॥ असंयतात्मनो योगो दुष्प्राप इति मे मतिः । वश्यात्मना तु यतता, शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥२४॥
भावार्थ : हे कृष्ण ! मन तो अतिचंचल है, प्रबल शत्रु की सेना के समान दृढ़ है । मैं मानता हूँ, उसका निग्रह करना हवा के निग्रह के समान अतिदुष्कर है । हे महाबाहो, अर्जुन ! निःसन्देह मन चंचल है और बड़ी कठिनता से उसका निग्रह हो सकता है, परन्तु हे कुन्तीपुत्र ! अभ्यास और वैराग्य से उसका निग्रह हो सकता है। हे अर्जुन ! जिसका मन वश में नहीं हुआ, उसके लिये योग दुष्प्राप्य है, ऐसी मेरी मान्यता है। जिसका मन वश में है, वह पुरुष प्रयत्नपूर्वक उपाए करने से योग को प्राप्त कर सकता है ॥२२-२३-२४॥ सदृशप्रत्यावृत्या वैतृष्ण्याद् बहिरर्थतः । एतच्च युज्यते सर्वं भावनाभावितात्मनि ॥२५॥
भावार्थ : बाह्य अर्थ से समान बोध की आवृत्ति द्वारा तृष्णारहित हो जाने पर उपर्युक्त सभी बातें भावनाओं से भावित आत्मा में घटित हो सकती हैं, उपयुक्त हो सकती हैं ॥२५॥ स्त्री-पशु-क्लीब-दुःशीलवर्जितं स्थानमागमे । सदा यतीनामाज्ञप्तं ध्यानकाले विशेषतः ॥२६॥ २००
अध्यात्मसार