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कापोतनीलकृष्णानां लेश्यानामत्र सम्भवः । अतिसंक्लिष्टरूपाणां कर्मणां परिणामतः ॥१४॥
भावार्थ : इस ( रौद्रध्यान में अतिसंक्लिष्ट रूप कर्मों के परिणाम के कारण कापोत, नील और कष्ण इन तीन लेश्याओं का होना सम्भव है ||१४||
उत्सन्नबहुदोषत्वं नानामारणदोषता । हिंसादिषु प्रवृत्तिश्च कृत्वाऽघं स्मयमानता ॥ १५॥ निर्दयत्वाननुशयौ, बहुमानः परापदि । लिंगान्यत्रेत्यदो धीरैस्त्याज्यं नरकदुःखदम् ॥१६॥
भावार्थ : उत्सन्नदोषत्व, बहुदोषत्व, नानाप्रकारदोषत्व, मारणदोषत्व, हिंसा आदि में प्रवृत्ति तथा पाप करके खुश होना, निर्दयता, पश्चात्ताप का अभाव, और दूसरों को आपत्ति में देख कर, बहुमान (हर्ष) होना; ये रौद्रध्यान के चिह्न हैं । अतः धीर पुरुषों को नरक के दुःख देने वाले इस रौद्रध्यान का त्याग करना चाहिए || १५-१६ ॥
अप्रशस्ते इमे ध्याने, दुरन्ते चिरसंस्तुते । प्रशस्तं तु कृताभ्यासो, ध्यानमारोढुमर्हति ॥१७॥
भावार्थ : ये दोनों अप्रशस्त ध्यान दुरन्त और चिरपरिचित हैं । इसलिए अभ्यास करके प्रशस्त ध्यान पर आरूढ़ होना उचित है ॥१७॥
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अध्यात्मसार