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भावना देशकालौ च स्वासनालम्बनक्रमान् । ध्यातव्यध्यात्रनुप्रेक्षालेश्यालिंगफलानि च ॥१८॥ ज्ञात्वा धर्म्यं ततो ध्यायेच्चतस्त्रस्तत्र भावनाः । ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वैराग्याख्याः प्रकीर्तिताः॥१९॥
भावार्थ : भावना, देश, काल, शुभासन, आलम्बन, अनुक्रम, ध्यातव्य, ध्याता, अनुप्रेक्ष, लेश्या, लिंग और फल, इन सबको जानने-समझने के पश्चात् धर्मध्यान में प्रवृत्ति होना चाहिए। इसके विषय में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य नाम की चार भावनाएं बताई गई हैं ॥१८-१९॥ निश्चलत्वमसम्मोहो निर्जरा पूर्वकर्मणाम् । संगाशंसाभयोच्छेदः फलान्यासां यथाक्रमम् ॥२०॥
भावार्थ : १. निश्चलता, २. असम्मोह, ३. पूर्वकर्मों की निर्जरा, ४. संग की आशंसा और भय का नाश, पर्वोक्त चारों भावनाओं के क्रमशः ये चारों फल जानने चाहिए ॥२०॥ स्थिरचित्तः किलैताभिर्याति ध्यानस्य योग्यताम् । योग्यतैव हि नान्यस्य तथा चोक्तं परैरपि ॥२१॥
भावार्थ : इन भावनाओं से स्थिरचित्त वाला पुरुष ही ध्यान की योग्यता प्राप्त करता है। दूसरे की योग्यता ही नहीं होती । इस विषय में अन्य दर्शनकारों ने भी कहा है ॥२१॥ चंचलं हि मनः कृष्ण ! प्रमाथि बलवद् दृढ़म् । तस्याऽहं निग्रहं मन्ये, वायोरिव सुदुष्करम् ॥२२॥ अधिकार सोलहवाँ
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