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भावार्थ : प्रमत्तगुणस्थान के अन्त तक रहने वाले एवं तिर्यञ्चगति देने वाले समस्त प्रमाद का मूल कारण यह आर्त्तध्यान महात्मा द्वारा त्याज्य है ॥१०॥ निर्दयं वधबन्धादिचिन्तनं निविड़ाधा। पिशुनासभ्यमिथ्यावाक् प्रणिधानं च मायया ॥११॥ चौर्यधीनिरपेक्षस्य तीव्रक्रोधाकुलस्य च । सर्वाभिशंकाकलुषं चित्तं च धनरक्षणे ॥१२॥
भावार्थ : अत्यन्त क्रोध करके निर्दयतापूर्वक वध, बन्धन वगैरह का चिन्तन करना प्रथम रौद्रध्यान कहलाता है तथा माया करके पिशुन (चुगली), असभ्य एवं असत्य बोलने का प्रणिधान दूसरा रौद्रध्यान कहलाता है । अपेक्षारहित और तीव्र क्रोध से आकुल-व्याकुल पुरुष द्वारा चोरी करने की बुद्धि तीसरा रौद्रध्यान कहलाता है, धन की रक्षा के सम्बन्ध में सभी पर शंका (शक) करके मन मलिन करना चौथा रौद्रध्यान कहलाता है ॥११-१२॥ एतत्सदोषकरण-कारणानुमतिस्थिति । देशविरतिपर्यन्तं रौद्रध्यानं चतुर्विधम् ॥१३॥
भावार्थ : इन दोषों वाले कार्यों को करने, कराने और अनुमोदन करने के रूप में जिसकी स्थिति है, ऐसा चार प्रकार का रौद्रध्यान देशविरतिगुणस्थान तक के जीवों को होता है ॥१३॥ अधिकार सोलहवाँ
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