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शब्दादीनामनिष्टानां वियोगासम्प्रयोगयोः । चिन्तनं वेदनायाश्च व्याकुलत्वमुपेयुषः ॥४॥ इष्टानां प्रणिधानं च सम्प्रयोगावियोगयोः । निदानचिन्तनं पापमार्त्तमित्थं चतुर्विधम् ॥५॥
___ भावार्थ : (१) अनिष्ट शब्दादि विषयों के वियोग की चिन्ता, (२) वेदना से व्याकुल होने की चिन्ता (३) इष्टपदार्थ के संयोग-वियोग होने की चिन्ता और (४) निदान का चिन्तन; इस प्रकार दुष्ट (पापजनक) आर्त्तध्यान चार प्रकार का होता है ॥४-५॥ कापोतनीलकृष्णानां लेश्यानामत्र सम्भवः । अनतिक्लिष्टभावानां कर्मणां परिणामतः ॥६॥
भावार्थ : इन चार प्रकार के आर्त्तध्यानियों में, जिसका भाव अतिक्लिष्ट नहीं है, ऐसे कर्म के परिणाम के कारण कापोत, नील और कृष्ण इन तीन लेश्याओं की सम्भावना है ॥६॥ कन्दनं रुदनं प्रोच्चैः शोचनं परिदेवनम् । ताडनं लुञ्चनं चेति लिंगान्यस्य विदुर्बुधाः ॥७॥
भावार्थ : क्रन्दन, रुदन, (जोर-जोर से चिल्लाना), अत्यन्त शोक (विलाप) करना, परिदेवन (झूरना), पीटना (छाती कूटना, सिर पीटना, ताडन करना) और लुंचन (उखाड़ना या कपड़े आदि फाड़ना), ये सब आर्त्तध्यानी के चिह्न विद्वानों ने बताए हैं ॥७॥ अधिकार सोलहवाँ
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