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देहमध्यशिरोग्रीवमवक्रं धारयन् बुधः । दन्तैरसंस्पृशन् दन्तान् सुश्लिष्टाधरपल्लवः ॥८१॥ आर्त्तरौद्रे परित्यज्य धर्मे शुक्ले च दत्तधीः । अप्रमत्तो रतो ध्याने ज्ञानयोगी भवेन्मुनिः ॥८२॥
भावार्थ : भयरहित, स्थिर, नाक के अग्रभाग पर दृष्टि जमाया हुआ, व्रत में स्थित, सुखकारक आसन से उपविष्ट, प्रसन्नमुख, दिशाओं की ओर न देखने वाला, देह के मध्यभाग, मस्तक और गर्दन को सीधी रखने वाला ज्ञानी, दाँतों से दाँतों को न छूता हुआ, दोनों ओष्ठपल्लवों को भलीभांति मिलाए हुए, आर्त एवं रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म और शुक्लध्यान में बुद्धि को गड़ाए हुए, जो अप्रमत्त और ध्यान में रत है, वह मुनि ज्ञानयोगी होता है ।।८०-८१-८२॥ कर्मयोगं समभ्यस्य ज्ञानयोगसमाहितः । ध्यानयोगं समारूह्य मुक्तियोगं प्रपद्यते ॥८३॥
भावार्थ : कर्मयोग का अभ्यास करके ज्ञानयोग में समाहित हुआ योगी फिर ध्यानयोग पर आरूढ़ होकर मुक्तियोग को प्राप्त कर लेता है ॥८३॥
॥ इति योगस्वरूपाधिकारः ॥
अधिकार पन्द्रहवाँ
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