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भावार्थ : इस कर्म का भी जो दूसरे (अविद्या आदि) विचित्र उपाधि वाले भेद पूर्वोक्त कारणों से उस-उस प्रकार से कहे जाते हैं, वे भी बुद्धिमान पुरुषों के लिए व्यर्थ हैं ॥७३॥ ततोऽस्थानप्रयासोऽयं यत्तद्भेदनिरूपणम् । सामान्यमनुमानस्य यतश्च विषयो मतः ॥७४॥
भावार्थ : इस कारण उसके भेद का निरूपण करना अनुचित प्रयास है । क्योंकि अनुमान का विषय सामान्य माना गया है; ॥७४॥
संक्षिप्तरुचिजिज्ञासोर्विशेषानवलम्बनम् । चारिसंजीवनीचारज्ञातादत्रोपयुज्यते ॥७५॥
भावार्थ : संक्षेपरुचि वाले जिज्ञासु को विशेष का अवलम्बन न लेना ही यहाँ उसी तरह उपयुक्त है, जिस तरह चारी संजीवनी के चरने का ज्ञान सामान्यरूप से ही उपयुक्त हुआ था ॥७५॥
जिज्ञासापि सतां न्याय्या, यत्परेऽपि वदन्त्यदः । जिज्ञासुरपि योगस्य शब्द ब्रह्मातिवर्तते ॥ ७६ ॥
भावार्थ : सत्पुरुषों की जिज्ञासा भी न्यायोचित है, क्योंकि दूसरे (गीता आदि ) दर्शनकार भी यही बात कहते हैं कि योग का जिज्ञासु भी शब्दब्रह्म का अतिक्रमण कर जाता है
॥७६॥
अधिकार पन्द्रहवाँ
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