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प्रयत्न में प्रवर्तमान और संक्षिप्तरुचि वाले सर्वज्ञसेवक को मोक्षप्राप्ति शीघ्र (समीप) ही संभव होती है, और वृत्ति के निरोध का क्लेश, इन्द्रियजय, अष्टांगयोग इत्यादि अनुष्ठान के प्रयत्न में प्रवर्त्तमान, अन्यदर्शनगत संक्षिप्तरुचि वाले सर्वज्ञसेवक को चिरकाल के पश्चात् मोक्षप्राप्ति संभव होती है; इस प्रकार का जो अन्तर है, वह भी सर्वज्ञ के उपासकत्व को नष्ट नहीं करता, उन्हें सर्वज्ञ का सेवक मानने से इन्कार नहीं करता ॥६६॥ माध्यस्थ्यमवलम्ब्यैव देवतातिशयस्य हि । सेवा सर्वैर्बुधैरिष्टा कालातीतोऽपि यज्जगौ ॥६७॥
भावार्थ : माध्यस्थ का आश्रय लेकर ही देव के अतिशय की सेवा समस्त विद्वानों को इष्ट है । इस विषय में कालातीत नाम के आचार्य ने भी कहा है ॥६७॥ अन्येषामप्ययं मार्गो मुक्ताविद्यादिवादिनाम् । अभिधानादिभेदेन तत्त्वनीत्या व्यवस्थितः ॥६८॥
भावार्थ : दूसरे मुक्तिवादी, अविद्यावादी वगैरह का मार्ग भी मात्र नाम के अन्तर से इसी तत्त्वनीति से व्यवस्थित है ॥६८॥ मुक्तो बुद्धोऽर्हन् वाऽपि यदैश्वर्येण समन्वितः। तदीश्वरः स एव स्यात्, संज्ञाभेदोऽत्र केवलम् ॥६९॥
भावार्थ : मुक्त, बुद्ध या अर्हन्, जो कोई भी ऐश्वर्य से युक्त हो, वही ईश्वर कहलाता है। इसमें केवल संज्ञा (नाम) का ही भेद है ॥६९॥ अधिकार पन्द्रहवाँ
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