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आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी चेति चतुर्विधाः । उपासकास्त्रयस्तत्र धन्या वस्तुविशेषतः ॥७७॥
भावार्थ : आर्त्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी ये चार प्रकार के उपासक हैं । वस्तुविशेष के कारण इनमें से तीन उपासक धन्य हैं। (भगवद्गीता अ. ७ श्लो. १६ में इन्हीं नामों से चार प्रकार के भक्तों का उल्लेख किया गया है ॥७७॥ ज्ञानी तु शान्तविक्षेपो नित्यभक्तिर्विशिष्यते । अत्यासन्नो ह्यसौ भर्तुरन्तरात्मा सदाशयः ॥७८॥
भावार्थ : ज्ञानी तो 'शान्तिविक्षेप' और 'नित्यभक्तिमान' विशेषणों से युक्त होता है; क्योंकि अन्तरात्मा - रूप वह सदाशयी (सद्भावना- शील) होने से ब्रह्म (स्वामी) के अत्यन्त निकट होता है ॥७८॥ कर्मयोगविशुद्धस्तज्ज्ञाने युञ्जीत मानसम् । अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ॥७९॥
भावार्थ : कर्मयोग से विशुद्ध हुआ योगी ज्ञानयोग में अपने चित्त (मन) को जोड़ता (लय करता) है । परन्तु अज्ञानी अश्रद्धावान और संदेहशील होता है, अतः वह नष्ट (योगभ्रष्ट ) हो जाता है ॥७९॥
निर्भयः स्थिरनासाग्रदत्तदृष्टिव्रतस्थितः । सुखासनः प्रसन्नास्यो दिशश्चानवलोकयन् ॥८०॥
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अध्यात्मसार