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अधिकार सोलहवाँ
[ध्यान-स्वरूप] स्थिरमध्यवसानं यत्तद्ध्यानं चित्तमस्थिरम् । भावना चाऽप्यनुप्रेक्षा चिन्ता वा तत् त्रिधा मतम् ॥१॥
भावार्थ : जो चित्त स्थिर है, उसे ही ध्यान समझना चाहिए, और जो चित्त अस्थिर है, उसे भावना, अनुप्रेक्षा या चिन्ता समझना चाहिए। इस प्रकार अस्थिर चित्त तीन प्रकार का माना गया है॥१॥ मुहूर्तान्तर्भवेद् ध्यानमेकार्थे मनसः स्थितिः । बह्वर्थसंक्रमे दीर्घाऽप्यच्छिन्ना ध्यानसंततिः ॥२॥
भावार्थ : एक आलम्बन (पदार्थ) में अन्तर्मुहूर्त तक मन की स्थिति का रहना ध्यान कहलाता है । अनेक पदार्थों (आलम्बनों) के संक्रमण में लंबी और अविछिन्न जो स्थिति होती है, उसे ध्यानश्रेणी (ध्यानसंतति) कहते हैं ॥२॥ आर्त रौद्रं च धर्म्यं च शुक्लं चेति चतुर्विधम् । तत्स्याद् भेदाविह द्वौ द्वौ कारणं भवमोक्षयोः ॥३॥
भावार्थ : आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल यों चार प्रकार का ध्यान कहलाता है । इनमें दो-दो भेद (ध्यान) क्रमशः संसार और मोक्ष के कारणरूप हैं ॥३॥ १९४
अध्यात्मसार