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___ भावार्थ : सदा स्त्री, पुरुष, नपुंसक और कुशील (दुराचारी, परस्त्रीगामी) से रहित स्थान में निरन्तर रहने की यतियों (मुनियों) के लिए आगम में आज्ञा दी है। और ध्यानकाल में तो विशेषरूप से वैसा स्थान बताया है ॥२६॥ स्थिरयोगस्य तु ग्रामेऽविशेषः कानने वने । तेन यत्र समाधानं स देशो ध्यायतो मतः ॥२७॥
भावार्थ : स्थिरयोग वाले योगी के लिए गाँव, जंगल, या उपवन में (निवास की) कोई विशेषता नहीं है। इस दृष्टि से जहाँ जिसके मन का समाधान रहे (मन समाधि में लगे) वही प्रदेश उस ध्यानी के लिए योग्य माना गया है ॥२७॥ यत्र योगसमाधानं कालोऽपीष्टः स एव हि। दिन-रात्रि-क्षणादीनां ध्यानिनो नियमस्तु न ॥२८॥
भावार्थ : जिस समय योग की समाधि होती है, वही काल ध्यान के लिए इष्ट है। ध्यानी के लिए दिन, रात, क्षण, घड़ी आदि का कोई नियम नहीं है ॥२८॥ यैवावस्था जिता जातु न स्याद् ध्यानोपघातिनी । तथा ध्यायेन्निषण्णो वा स्थितो वा शयितोऽथवा ॥२९॥
भावार्थ : जो जीती (अभ्यस्त की) हुई अवस्था (आसन) ध्यान का उपघात करने वाली न हो, उसी अवस्था में बैठे, खड़े या सोते हुए योगी को ध्यान करना चाहिए । जो अधिकार सोलहवाँ
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