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अनादिशुद्ध इत्यादिर्यो भेदो यस्य कल्प्यते । तत्तत्तंत्रानुसारेण मन्ये सोऽपि निरर्थकः ॥७॥
भावार्थ : अनादि-शुद्ध इत्यादि शब्दों से ईश्वर का जो भेद विभिन्न दर्शनकारों द्वारा कल्पित है, मैं मानता हूँ, वह भी निरर्थक है ॥७०॥ विशेषस्यापरिज्ञानाद्युक्तीनां जातिवादिनः । प्रायो विरोधतश्चैव फलाभेदाच्च भावतः ॥७१॥
भावार्थ : जातिवादी की युक्तियों का विशेष रूप न जानने के कारण प्रायः विरोध आने के कारण तथा भाव से फल की अभिन्नता होने के कारण दर्शनों का भेद होता है ॥७१॥ अविद्याक्लेशकर्मादि यतश्च भवकारणम् । ततः प्रधानमेवैतत् संज्ञाभेदमुपागतम् ॥७२॥
भावार्थ : जिस कारण अविद्या, क्लेश, कर्म, आदि भव (संसार) के कारण हैं, उनमें संज्ञा को लेकर भेद है, उसी कारण सर्वज्ञ भी संज्ञा के भेद के कारण अपने-अपने दर्शनों में बताया गया है । इसलिए सर्वज्ञ की भक्ति का तत्त्व ही (भेद का त्याग करके) एकमात्र प्रधान श्रेष्ठ है ॥७२॥ अस्याऽपि योऽपरो भेदश्चित्रोपाधिस्तथा तथा । गीयतेऽतीतहेतुभ्यो धीमतां सोऽप्यपार्थकः ॥७३॥
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अध्यात्मसार