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सर्वज्ञप्रतिपत्त्यंशात् तुल्यता सर्वयोगिनाम् । दूरासन्नादिभेदस्तु तद्भूत्यत्वं निहन्ति न॥६६॥
भावार्थ : सर्वज्ञ की उपासनारूप अंश से समस्त योगियों की समानता है। इसलिए दूर या समीप इत्यादि भेद उनके सेवकत्व को नष्ट नहीं करता । सर्व यानी जधन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद वाले योगियों (परब्रह्म के उपाय के आराधकों) की सर्वज्ञ सेवा के अंश से (परिपूर्ण ब्रह्मरूप केवली की भक्ति आराधनारूप अंश से), अर्थात् मोक्ष की आराधना के प्रकार से तुल्यता (समानता) है । परन्तु दूर (पुद्गलपरावर्त्त आदि चिरकाल के बाद महाकष्ट से प्राप्त करने) तथा आसन्न यानी अल्पकाल में ही सिद्धि प्राप्त करने के बाद तथा आदि शब्द से सम्यक्त्व-प्राप्ति, मार्गानुसारीपद-प्राप्ति वगैरह जो भेद हैं. यानी मोक्ष के साधनों की भिन्नता है, वह उनके सर्वज्ञ-सेवकत्व का नाश नहीं कर सकती । जैसे प्रधान आदि राजा के निकटवर्ती सेवक होते हैं और कोई द्वारपाल आदि दूर के सेवक होते हैं, पर वे सभी सेवक कहलाते हैं, सभी राजा के आश्रित होते हैं, इसी प्रकार सर्वज्ञ के सेवक, चाहे वे निकटस्थ हों, या दूरस्थ, सभी सेवक कहलाते हैं । भले ही कोई उनमें आसन्नसिद्धिक हों, कोई दूरसिद्धिक; हैं वे सर्वज्ञ के उपासक ही । अथवा दूर और आसन्न शब्द के ये अर्थ भी हो सकते हैं-जिनसम्बन्धी ध्यान और क्रियादि के १८८
अध्यात्मसार