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उपास्ते ज्ञानवान् देवं यो निरञ्जनमव्ययम् । स तु तन्मयतां याति ध्याननिर्धूतकल्मषः ॥ ६२ ॥
भावार्थ : जो ज्ञानी पुरुष निरञ्जन और अविनाशी देव (परमात्मा) की उपासना करता है, वह ध्यान के द्वारा पापों का नाश करके तन्मयता - देवरूपता को प्राप्त कर लेता है ॥६२॥ विशेषमप्यजानानो यः कुग्रहविवर्जितः । सर्वज्ञं सेवते सोऽपि सामान्ययोगमास्थितः ॥ ६३ ॥
भावार्थ : जो मुमुक्षु विशेष को नहीं जानता हुआ भी कदाग्रह से रहित है, तथा जो सर्वज्ञ की सेवा करता है, वह भी सामान्ययोग का आश्रय लेकर टिका हुआ है ॥६३॥ सर्वज्ञो मुख्य एकस्तत्प्रतिपत्तिश्च यावताम् । सर्वेऽपि ते तमापन्ना मुख्यं सामान्यतो बुधाः ॥६४॥
भावार्थ : सर्वज्ञ मुख्य है, वह एक ही है, उसपर ऐसी प्रतिपत्ति (भक्तिभावना) जितने भव्यों को है, वे सब पण्डित सामान्यतया मुख्यरूप से उसी सर्वज्ञ को प्राप्त हैं ॥६४॥ न ज्ञायते विशेषस्तु सर्वथाऽसर्वदर्शिभिः । अतो न ते तमापन्ना विशिष्य भुवि केचन ॥६५॥
भावार्थ : असर्वज्ञ सर्वथा विशेष को नहीं जानते; इसलिए वे (आचार्य) पृथ्वी पर किसी देव को विशेषत: सर्वज्ञरूप में मानते हैं, परन्तु वे वास्तविक सर्वज्ञ को प्राप्त नहीं करते ॥६५॥
अधिकार पन्द्रहवाँ
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