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जीवत्व भव्य और अभव्य सब जीवों में समान होते हुए भव्यत्व और अभव्यत्व का भेद होता है ॥६९॥ स्वाभाविकं च भव्यत्वं कलशप्रागभाववत् । नाशकारणसाम्राज्याद् विनश्यन्न विरुध्यते ॥७०॥
भावार्थ : घट के प्रागभाव की तरह स्वाभाविक भव्यत्व के नाश की कारणसामग्री को लेकर नाश होने से भी कोई विरोध नहीं आता ॥७०॥ भव्योच्छेदो न चैवं स्याद् गुर्वानन्त्यान्नभोंशवत् । प्रतिमादलवत् क्वापि फलाभावेऽपि योग्यता ॥७१॥
भावार्थ : आकाश के प्रदेशों की तरह भव्यजीव महाअनन्त होने से उन भव्यों का सर्वथा नाश नहीं होगा । अन्य किसी विषय में कदाचित् फल का अभाव हो, लेकिन प्रतिमा (बनने योग्य पाषाण) दल की तरह भव्य में मोक्ष की योग्यता तो होती ही है ॥७१॥
नैतद् वयं वदामो यद् भव्यः सर्वोऽपि सिध्यति । यस्तु सिध्यति सोऽवश्यं भव्य एवेति नो मतम् ॥७२॥ भावार्थ : हम यह नहीं कहते कि जितने भी भव्यजीव हैं, वे सब के सब मोक्ष में (सिद्ध हो) जाते हैं, परन्तु इतना हम दावे के साथ कह सकते हैं कि जो मोक्ष में गए हैं, वे सभी अवश्य ही मोक्ष की योग्यता वाले भव्य जीव ही थे ||७२ ||
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अध्यात्मसार