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देहनिर्वाहमात्रार्था याऽपि भिक्षाटनादिका । क्रिया सा ज्ञानिनोऽसंगान्नैव ध्यानविघातिनी ॥ ११ ॥
भावार्थ : वह केवल शरीरनिर्वाह के लिए जो भिक्षाचरी आदि क्रियाएँ करता है, वे भी ज्ञानी की असंगता (अनासक्ति) के कारण उसके ध्यान का विघात (भंग) करने वाली नहीं होतीं ॥११॥
रत्नशिक्षा हगन्या हि तन्नियोजनदृग्यथा । फलभेदात्तथाचारक्रियाऽप्यस्य विभिद्यते ॥१२॥
भावार्थ : जैसे रत्नपरीक्षा का प्रशिक्षण लेते समय की दृष्टि अलग होती है और रत्नपरीक्षा करते समय की दृष्टि भी फल के अन्तर के कारण अलग होती है, वैसे ही ज्ञानी की आचारक्रिया में भी भेद होता है ॥ १२ ॥
ध्यानार्था हि क्रिया सेयं प्रत्याहृत्य निजं मनः । प्रारब्धजन्मसंकल्पादात्मज्ञानाय कल्पते ॥१३॥
भावार्थ : अत: ध्यानार्थ की हुई यह क्रिया प्रारब्धजन्म के संकल्प से अपने मन को वापस लौटाने पर आत्मज्ञान के लिए समर्थ हो जाती है ॥ १३ ॥
स्थिरीभूतमपि स्वान्तं रजसा चलतां व्रजेत् । प्रत्याहृत्य निगृह्यति ज्ञानी यदिदमुच्यते ॥ १४ ॥
अधिकार पन्द्रहवाँ
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