________________
भावार्थ : मन स्थिर हो गया हो तो भी रजोगुण (राग) से चंचल हो जाता है । इसलिए ज्ञानी उसे पुनः खींचकर उसका निग्रह कर लेता है, जिसके सम्बन्ध में आगे कहा गया है ॥१४॥ शनैः शनैरूपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया । आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥१५॥ ___ भावार्थ : धृति (स्थिरता या संतोष) से गृहीत (वसीकृत) बुद्धि से धीरे-धीरे उपशम पाता (शान्त होता) जाय । फिर मन को आत्मा में स्थित करके अन्य कुछ भी चिन्तन करने की आवश्यकता नहीं है ॥१५॥ यतो यतो निःसरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥१६॥
भावार्थ : चंचल और अस्थिर मन जिस-जिस संकल्पादि से बाहर निकलता है, वहाँ से रोककर उसे आत्मा के ही अधीन (वश में) करे । गीता के इन दो श्लोकों में मन को एकाग्र करने के उपाय बताए गए हैं । इस प्रकार योगी एक विषय से दूसरे विषय में जाते हुए चपल (अन्यान्यविषयों को ग्रहण करने के स्वभाव वाले) मन को वह जिस-जिस संकल्प व्याक्षेप से बाहर निकलता है, उस समय व्याक्षेप से रोककर (ज्ञानरूपी डोरी से बाँधकर) धीरे-धीरे धीरतायुक्त बुद्धि से
१७२
अध्यात्मसार