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भावार्थ : श्रद्धा, मेघा (निर्मलबुद्धि) आदि के योग से शुद्धक्रिया करने वाले के लिए वे भी ज्ञानयोग के अतिक्रमरूप न होने से अक्षत मुक्ति की कारण होती हैं । सर्वज्ञोक्त एवं विधिपूर्वक की हुई क्रिया भी जिनवचन के प्रति उत्कट श्रद्धा,
और सूक्ष्म अर्थग्रहण-समर्थ ग्रन्थज्ञान वाली बुद्धि, आदि शब्द से धृति, धारणा, अनुप्रेक्षा वगैरह के योग से अर्थात् कायोत्सर्गादि क्रियाओं में उपयोग से उपर्युक्त ज्ञानयोग का उल्लंघन न होने से (अर्थात् इस तरीके के कर्मयोग भी ज्ञानयोगत्व को प्राप्त होने से) अक्षत परिपूर्ण मोक्ष की कारणभूत बन जाती हैं, क्योंकि उससे मन का निरोध होता है, कर्म की निर्जरा भी होती है ॥२०॥ अभ्यासे सत्क्रियापेक्षा योगिनां चित्तशुद्धये । ज्ञानपाके शमस्यैव यत्परैरप्यदः स्मृतम् ॥२१॥
भावार्थ : योगाभ्यासकाल में योगियों को चित्तशुद्धि के लिए सत्क्रिया की अपेक्षा होती है और ज्ञान की परिपक्वता में केवल शम की ही अपेक्षा होती है, जिसे अन्यदर्शनियों ने भी बताया है ॥२१॥ आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥२२॥
भावार्थ : योगारोहण करना चाहने वाले मुनि के योग का कारण कर्म कहलाता है, और योगारूढ़ होने के बाद उसी
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अध्यात्मसार