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विषयेषु न रागी वा, द्वेषी वा मौनमश्नुते । समं रूपं विदंस्तेषु न ज्ञानयोगी न लिप्यते ॥ ३७॥
भावार्थ : ज्ञानयोगी विषयों में रागी या द्वेषी नहीं होता, इसी कारण वह मुनित्व अर्जित कर लेता है । विषयों में समानरूप जानकर ज्ञानयोगी उनमें लिप्त (आसक्त) नहीं होता ||३७|| सत्तत्वचिन्तया यस्याभिसमन्वागता इमे । आत्मवान् ज्ञानवान् वेदधर्मब्रह्ममयो हि सः ॥३८॥
भावार्थ : ये शब्दादि विषय यथार्थस्वरूप के चिन्तनरूप में जिस साधक के अपने उपभोग में भलीभांति आ गए हैं, वही आत्मवान् है, ज्ञानवान् है, वेदमय है, धर्ममय है और ब्रह्ममय है ||३८|| ॥३८॥
वैषम्यबीजमज्ञानं निघ्नन्ति ज्ञानयोगिनः ।
विषयांस्ते परिज्ञाय लोकं जानन्ति तत्वतः ॥३९॥
भावार्थ : ज्ञानयोगी विषमता के बीजरूप अज्ञान को ही खत्म कर देते हैं । वे विषयों को समग्ररूप से जानकर लोक को तत्त्वतः जानते हैं ॥३९॥
इतश्चापूर्वविज्ञानाच्चिदानन्दविनोदिनः ।
ज्योतिष्मन्तो भवन्त्येते ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥४०॥
भावार्थ : इसके बाद वे ज्ञानयोगी अपूर्वविज्ञान से चिदानन्द के विनोदी बनकर ज्ञान से पापों का नाश करके ज्ञान - ज्योतिर्मय बन जाता है ॥४०॥
अधिकार पन्द्रहवाँ
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