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भावार्थ : विद्या और विनय से युक्त ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल आदि पर पण्डित सर्वत्र समदर्शी होते हैं ॥४३॥ इहैव तैर्जितः सर्गो यषां साम्ये स्थितं मनः । निर्दोषं हि समं ब्रह्म, तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥४४॥
भावार्थ : जिनका मन समता में स्थित हो गया है, उन्होंने इसी जन्म में संसार को जीत लिया है, क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और समरूप है। इस कारण वे इस ब्रह्म में ही स्थित हैं, यह समझना चाहिए ॥४४॥ न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य, नोद्विजेत् प्राप्य चाप्रियम् । स्थिरबुद्धिरसम्मूढो, ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥४५॥
भावार्थ : ब्रह्म में स्थित, स्थितप्रज्ञ (स्थिरबुद्धि वाला) एवं असम्मूढ़ (सम्मोहरहित) ब्रह्मवेत्ता (ब्रह्मज्ञानी) प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित नहीं होता तथा अप्रिय पाकर उद्विग्न नहीं होता ॥४५॥ अर्वाग्दशायां दोषाय वैषम्ये साम्यदर्शनम् । निरपेक्षमुनीनां तु राग-द्वेषक्षयाय तत् ॥४६॥
भावार्थ : अर्वाग्दशा की विषमता में समदृष्टि (साम्यदर्शन) दोष के लिए होती है, जबकि निरपेक्षमुनि की वही समदृष्टि रागद्वेष के क्षय करने के लिए होती है ॥४६।। अधिकार पन्द्रहवाँ
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